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Class 6th social science civics chapter 1 : विविधता की समझ

विविधता की अवधारणा

– विविधता से तात्पर्य ऐसी स्थिति से है जिसमें समस्त भाषायी, क्षेत्रीय, भौगोलिक एवं सांस्कृतिक रुप से अलग-अलग रहने वाले मानव एक समुह/ समाज या एक स्थान विशेष में साथ-साथ निवास करते हैं।

– ऐसा माना जाता है कि सभी व्यक्ति शारीरिक रचना की दृष्टि से समान होती है। उनके मूल ऐसे होते हैं जिन्हें विशेष लक्षणों के कारण ऐसे समूह में रखा जा सकता है जो उन लक्षणों मैं से निम्न लक्षण वाले समूहों से अलग होते हैं। अनेक ऐसे जैविक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक आधार हैं जो किसी भी देश के निवासियों में विविधता विकसित कर देते हैं। दूसरी ओर ऐसा भी माना जाता है कि कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से किसी अन्य व्यक्ति के समान नहीं होता है। लोगों में जो समानता हमें प्रजातीय लक्षणों के कारण दिखाई देती है, वस्तुतः यह केवल वैध समानता ही है। एक प्रजाति के लोग भी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक आधार पर समूहों में ही हो सकते हैं। राजनीतिक दृष्टि से भी उनमें से कुछ अल्पसंख्यक समूह सत्ताधारी तथा शासक वर्ग के हो सकते हैं। समाजशास्त्र जैसे विषय में विविधता का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है।

विविधता

विविधता का आशय व्यक्तियों एवं समूहों में पाई जाने वाली असमानताएं हैं। विविधता के अवधारणा में स्वीकृति एवं सम्मान सन्निहित होते हैं। इसका अर्थ यह समझ लेना है कि प्रत्येक व्यक्ति विशिष्ट एवं अनुपम होता है तथा हमें अपने वैयक्तिक भेदों को मान्यता देनी चाहिए। ये भेद प्रजाति, सजाति, लिंग (जेण्डर), लैंगिग अभिविन्यासों. सामाजिक आर्थिक प्रस्थिति, आयु, शारीरिक क्षमताओं, धार्मिक विश्वासों अथवा वैचारिकियो जैसे. पहलुओं के आधार पर हो सकते हैं। विविधता के अध्ययन से अभिप्राय इन भेदों का अन्वेषण सुरक्षित, सकारात्मक तथा पोषक वातावरण के रूप है। यह एक-दूसरे को समझने तथा सरल सहिष्णुता से विविधता के बहुमूल्य पहलुओं की ओर आगे बढ़ने से सम्बन्धित है। यदि ऐसा नहीं होगा तो कोई भी समाज विविधता के होते हुए अपना तथा स्थायित्व बनाए रखने में सफल नहीं हो सकता।

विविधता की अवधारणा के सम्बन्ध में यह तथ्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि अमेरिका एवं भारत जैसे बहुलवादी एवं बहुसांस्कृतिक देशों में इसकी कोई सुस्पष्ट परिभाषा नहीं है तथा यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति, एक संगठन से दूसरे संगठन तथा एक लेखक से दूसरे लेखक के लिए भिन्न हो सकती है। कुछ संगठनों में विविधता प्रजाति, जेण्डर, धर्म तथा विकलांगता पर कठोरता से केन्द्रित होती है, जबकि अन्य संगठनों में विविधता की अवधारणा का विस्तार लैंगिक (यौन) अभिविन्यासों, शरीर की छवि, सामाजिक-आर्थिक प्रस्थिति आदि के रूप में हो सकता है। वेलनर ने विविधता का सम्प्रत्यीकरण लोगों में पाए जाने वाले वैयक्तिक भेदों तथा समानताओं की बहुलता के रूप में किया है। विविधता में अनेक मानवीय लक्षण जैसे प्रजाति, आयु, जाति, नस्ल, राष्ट्रीय उत्पत्ति, धर्म, संजाति, लैंगिक अभिविन्यास आदि सम्मिलित होते हैं।

विविधता के प्रकार

1. धार्मिक विविधता

2. सांस्कृतिक विविधता

3. भाषागत विविधता

4. जातीय विविधता

5. जनजातीय विविधता

1. धार्मिक विविधता

भारत समाज और जनजीवन में धार्मिक विविधता देखने को मिलती हैं। विश्व के सभी धर्मों का विकास भारत में ही हुआ है इसी कारण भारत समाज धर्म की दृष्टि से अनेक वर्गों में विभक्त हो गया 1991 की जनगणना के अनुसार भारत में 7 धर्म माने गये हैं। हिंदू ,मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और अन्य धर्म। हिंदू धर्म में अनेक देवी-देवताये उत्साह तीर्थ यात्राएं मूर्ति पूजन आदि प्रचलित हैं उसी प्रकार मुस्लिम में भी अलग अलग संप्रदाय एवं शिक्षा है सिख धर्म भी एक ईश्वर वादी धर्म है जिसमें एक ही ईश्वर को परम माना गया है ईसाई धर्म को भी दो भागों में बांटा गया है। कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट। इसी प्रकार बहुत जल्दी आता है उसी प्रकार अन्य धर्म में पारसी धर्म आता है यह एक लघु समुदाय हैं जिस का आगमन आठवीं शताब्दी में पसिया से हुआ इस धर्म के संस्थापक जरथूस्त्र थे। इस प्रकार धर्म विनीता देखने को मिलती है।

2. सांस्कृतिक विविधता

भारत के बहु सांस्कृतिक देश है जहां के लोगों के विभिन्न रहन सहन और खानपान है उनके अपने रीति-रिवाज त्यौहार इत्यादि मानने का ढंग एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं कहीं गणेश पूजा को अधिक महत्व दिया जाता है तो कहीं दुर्गा पूजा को। अतः ये सभी अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए तट पर हैं और संविधान भी इन्हें इसकी इजाजत देती हैं अतः भारत संस्कृति को पूरे विश्व में जाना जाता है।

3. भाषागत विविधता

भाषा मनुष्य के आदान-प्रदान का शक्तिशाली माध्यम है भारतीय समाज में 3000 से अधिक बोलियां तथा भाषाएं हैं हिंदी हमारे मातृभाषा है परंतु दक्षिण भारत में अंग्रेजी और दक्षिण भारतीय भाषाओं का प्रयोग किया जाता है उसी प्रकार भारत में 10 मील में भाषा और बोली में अंतर आ जाता है सन 1991 की जनगणना के अनुसार देश 1652 भाषा बोली जाती है परंतु भारतीय संविधान में 15 भाषाओं का ही उल्लेख किया गया है 1992 में अन्य तीन भाषाओं को मान्यता दी गई है इस प्रकार इन 18 भाषाओं का उल्लेख सरकारी कार्यालयों में प्रयोग किया जाता है वर्तमान में 22 भाषाओं को मान्यता मिल चुकी है इसके अतिरिक्त भारत में अनेक भाषाएं एवं बोलियां हैं जैसे हिंदी में अवधि, बघेली, भोजपुरी, ब्रज, बुंदेली आदि भाषाएं एवं अनेक बोलियां हैं इस प्रकार हमारे देश व समाज में भाषागत विविधता भी बहुत हैं।

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