जैन धर्म का इतिहास एवं सिद्धान्त

क्या आप जैन धर्म का इतिहास के बारे में जानना चाहते है ? अगर हाँ ! तो आपको हमारी यह पूरी पोस्ट जरूर पढ़ना चाहिए जिसमे हम जैन धर्म से संबंधित लगभग सभी महवपूर्ण बातें शेयर की है | अगर आप किसी भी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे है तो यह टॉपिक आपको भारत का इतिहास विषय में पढ़ने के लिए मिलता है 

अगर आप इस टॉपिक को अच्छे से क्लियर करना चाहते है तो नीचे हमने सम्पूर्ण नोट्स उपलब्ध करवा दिया है आप उन्हें एक बार जरूर पढ़े 

WhatsApp Group Join Now
Telegram Group Join Now
Instagram Group Join Now

जैन धर्म का इतिहास एवं सिद्धान्त

-जैन शब्द : ‘जिन’ से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ – विजेता है।

-जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव थे जिन्हें पहले तीर्थंकार के रूप में जाना जाता है।

-जैन संतों को तीर्थंकर कहा गया है।

Note : ऋग्वेद में दो जैन तीर्थंकरों ऋषभदेव (आदिनाथ) व अरिष्टनेमी का उल्लेख।

Note : ऋग्वेद व यजुर्वेद दोनों में केवल ऋषभदेव का उल्लेख है।

-भागवत् पुराण व विष्णु पुराण में ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है।

-जैन परम्परा में 24 तीर्थंकरों के नाम दिए गए हैं जिनमें पार्श्वनाथ तथा महावीर के अतिरिक्त सभी की ऐतिहासिकता संदिग्ध है।

-पार्श्वनाथ जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर थे। ये काशी नरेश अश्वसेन के पुत्र थे इन्हें जैन ग्रन्थों में “पुरुषपादनीयम” कहा गया है।

-पार्श्वनाथ ने चार महाव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह का प्रतिपादन किया था।

-जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक महावीर का जन्म वैशाली के निकट कुंडग्राम में 540 ई.पू. में हुआ। इनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक गण के मुखिया थे और माता त्रिशला लिच्छवि गणराज्य प्रमुख चेटक की बहन थी। महावीर के बचपन का नाम वर्द्धमान था।

नोट : कुछ ऐतिहासिक ग्रंथों के अनुसार महावीर का जन्म 599 ई. पू. व मृत्यु 527 ई. पू. माना जाता है।

-इनका विवाह यशोदा से हुआ तथा इनकी पुत्री का नाम प्रियदर्शना था।

-महावीर ने 30 वर्ष की अवस्था में बड़े भाई नंदिवर्द्धन की आज्ञा लेकर गृह त्याग कर दिया।

-12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात् जृम्भिक ग्राम (साल वृक्ष के नीचे) के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर वर्द्धमान को कैवल्य प्राप्त हुआ।

-कैवल्य प्राप्त होने के पश्चात् ये केवलिन, इन्द्रियों को जीत लेने के कारण जितेन्द्रिय तथा अतुल पराक्रम दिखाने के कारण ये महावीर कहलाए।

-महावीर ने अपने जीवन काल में एक संघ की स्थापना की, जिसमें 11 प्रमुख अनुयायी थे, जिन्हें गणधर कहा गया था।

-72 वर्ष की उम्र में राजगृह के निकट पावापुरी में 468 ई.पू. में निर्वाण प्राप्त किया। (मल्ल राज्य)

-महावीर की मृत्यु के बाद केवल एक गणधर सुधर्मन जीवित बचा, जो जैन संघ का उनके बाद प्रथम अध्यक्ष बना।

-सालवृक्ष के नीचे महावीर को कैवल्य की प्राप्ति हुई थी। पूर्व में ये ‘निग्रंथ‘ कहलाते थे।

-जैन मठों को दक्षिण भारत में बसादि के नाम से जाना गया है।

-पंच महाव्रत-1. अहिंसा, 2. सत्य 3. अपरिग्रह, 4. अस्तेय तथा 5. ब्रह्मचर्य।

-सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं मानना। (अनीश्वरवादी)

-देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया है परन्तु इनका स्थान ‘जिन’ से नीचे है।

-जैन धर्म कर्मवादी है तथा इसमें पुनर्जन्म की मान्यता है।

नोट:आजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक मक्खलिपुत्र गोशाल थे।

त्रिरत्न :
1.  सम्यक् दर्शन –   सत में विश्वास।
2.  सम्यक् ज्ञान –   वास्तविक ज्ञान।
3.  सम्यक् आचरण –   सांसारिक विषयों में उत्पन्न सुख – दु:ख के प्रति समभाव।

स्यादवाद : जैन धर्म में ज्ञान को 7 विभिन्न दृष्टिकोण से देखा गया है जो स्यादवाद कहलाता है। इसे अनेकान्तवाद अथवा सप्तभंगीय का सिद्धान्त भी कहते हैं।

अनेकात्मवाद : आत्मा संसार की सभी वस्तुओं में है। जीव भिन्न – भिन्न होते हैं उसी प्रकार आत्माएँ भी भिन्न – भिन्न होती हैं।

निर्वाण : आत्मा को कर्मों के बंधन से छुटकारा दिलाना ‘निर्वाण’ कहा गया है।

-अनन्त चतुष्टय की अवधारणा जैन धर्म से सम्बन्धित है।

-“शलाका पुरुष” अवधारणा का संबंध जैन धर्म से है।

-जैन धर्म में ज्ञान प्राप्ति के तीन स्त्रोत माने गए हैं –

प्रत्यक्ष, अनुमान तथा तीर्थंकरों के वचन

-जैन  धर्म में विद्रोह जामालि व तीसगुप्त ने किया था।

-जामालि महावीर के प्रथम शिष्य तथा उनकी पुत्री प्रियदर्शना के पति थे।

-महावीर ने अपना प्रथम उपदेश राजगृह की विपुलाचल की पहाड़ी पर दिया।

-महावीर की मृत्यु के बाद जैन संघ का प्रथम अध्यक्ष सुधर्मन बना।

-जैन साहित्य प्राकृत (अर्द्वमागधी) भाषा में लिखा गया तथा जैन साहित्य को ”आगम” कहा जाता है।

-जैन तीर्थंकरों के प्रतीक चिह्न

 तीर्थंकर  प्रतीक चिह्न

(1) ऋषभदेव  – वृषभ

(2) अजितनाथ  –  गज

(3)सम्भवनाथ – अश्व

(4)नेमीनाथ – नीलोत्पल

(5) अरिष्टनेमी – शंख

(6) पार्श्वनाथ – सर्प

(7) महावीर – सिंह

स्थानपाटलिपुत्र
समय300 ई.पू.
अध्यक्षस्थूलभद्र (शासक चन्द्रगुप्त मौर्य)
कार्यजैन धर्म का श्वेतांबर एवं दिगम्बर में विभाजन
स्थानवल्लभी (गुजरात)
समय512 ई. (छठी शताब्दी) मैत्रक वंश के शासक श्रवसेन प्रथम के काल में
अध्यक्षदेवर्षि श्रमाश्रवण
कार्यजैन ग्रंथों का अंतिम संकलन कर लिपिबद्ध किया गया ।
  • चौथीं सदी ई.पू. में मगध में 12 वर्ष़ों तक भयंकर अकाल पड़ा, जिससे भद्रबाहु अपने शिष्यों के साथ कर्नाटक चले गए और स्थूलभद्र अपने शिष्यों के साथ मगध में ही रहे। भद्रबाहु के लौटने तक मगध के भिक्षुओं की जीवनशैली में आया बदलाव विभाजन का कारण बना।
  • मगध में निवास करने वाले जैन भिक्षु स्थूलभद्र के नेतृत्व में श्वेताम्बर कहलाए। ये श्वेत वस्त्र धारण करते थे।
  • जैन आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में जैन भिक्षु दिगम्बर कहलाए। ये अपने को शुद्ध बताते थे और नग्न रहने में विश्वास करते थे।
  • जैन ग्रन्थ ‘कल्पसूत्र’ की रचना भद्रबाहु ने की थी।
  • पुजेरा, ढुंढिया आदि श्वेताम्बर के उपसंप्रदाय थे।
  • बीस पंथी, तेरापंथी तथा तारणपंथी दिगम्बर के उपसम्प्रदाय थे।
  • जैनों ने प्राकृत भाषा में विशेषकर शौरसेनी प्राकृत में अनेक ग्रंथों की रचना की।
  • जैन साहित्य को आगम कहा जाता है जिसमें 12 अंग, 12 उपांग, प्रकीर्ण, छन्दसूत्र आदि सम्मिलित हैं।
  • जैनियों के स्थापत्य कला में दिलवाड़ा मंदिर, माउंट आबू, खजुराहो में स्थित पार्श्वनाथ, आदिनाथ मंदिर प्रमुख हैं।
Join Whatsapp GroupClick Here
Join TelegramClick Here

इस पोस्ट में उपलब्ध करवाए गए UPSC NOTES अगर आपको अच्छे लगे हो तो इसे अपने दोस्तों के साथ एवं अन्य ग्रुप में जरूर शेयर करें ताकि जो विधार्थी घर पर रहकर बिना कोचिंग कर तैयारी कर रहा है उसको मदद मिल सके |  

1 thought on “जैन धर्म का इतिहास एवं सिद्धान्त”

Leave a Comment