अगर आप NCERT के नोट्स क्लास अनुसार पढ़ना चाहते हैं तो आज की इस पोस्ट में हम आपके लिए राजनीति विज्ञान कक्षा 11 नोट्स : स्वतंत्रता अध्याय से संबंधित क्लासरूम नोट्स उपलब्ध करवा रहे हैं जिसमें आपको इसके बारे में संपूर्ण जानकारी देखने को मिलेगी |
सिविल सर्विस परीक्षा या स्टेट पीसीएस परीक्षा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों के लिए यह नोट्स बहुत जरूरी है इसलिए इन्हें अच्छे से जरूर पढ़ें एवं आगामी परीक्षा के लिए याद करें |
राजनीति विज्ञान कक्षा 11 नोट्स : स्वतंत्रता
● ‘लॉन्ग वॉक टू फ्रीडम’ (स्वतंत्रता के लिए लंबी यात्रा) आँग सान सू की के लिए गाँधी जी के अहिंसा के विचार प्रेरणास्रोत रहे हैं। सू की को म्यांमार में उनके घर पर नजरबंद करके रखा गया था। सू की अपने बच्चों से अलग हैं। यहाँ तक कि जब उनके पति कैंसर के कारण मौत से जूझ रहे थे, तब भी सू की को उनसे मिलने नहीं दिया गया। सैनिक शासकों को डर था कि यदि वह अपने पति से मिलने इंग्लैंड गई, तो उसे वापिस म्यांमार लाना संभव नहीं होगा। आँग सान सू की अपनी आजादी को अपने देश के लोगों की आजादी से जोड़कर देखती थी। उनकी पुस्तक का शीर्षक ‘फ्रीडम फ्रॉम फीयर’ (भय से मुक्ति)है।
स्वतंत्रता क्या है ?
● “स्वतंत्रता क्या है?” इस प्रश्न का एक सीधा-सपाट उत्तर यह है कि व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबंधों का अभाव ही स्वतंत्रता है। इस परिभाषा के हिसाब से यदि किसी व्यक्ति पर बाहरी नियंत्रण या दबाव न हो और वह बिना किसी पर निर्भर हुए निर्णय ले सके तथा स्वायत्त तरीके से व्यवहार कर सके , तो वह व्यक्ति स्वतंत्र माना जा सकता है। हालाँकि प्रतिबंधों का न होना स्वतंत्रता का केवल एक पहलू है। स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति की आत्म-अभिव्यक्ति की योग्यता काा विस्तार करना और उसके अंदर की संभावनाओं को विकसित करना भी है। इस अर्थ में स्वतंत्रता वह स्थिति है, जिसमें लोग अपनी रचनात्मकता और क्षमताओं का विकास कर सकें।
● बाहरी प्रतिबंधों का अभाव और ऐसी स्थितियों का होना जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें, स्वतंत्रता के ये दोनों ही पहलू महत्त्वपूर्ण हैं। एक स्वतंत्रता समाज वह होगा, जो अपने सदस्यों को न्यूनतम सामाजिक अवरोधों के साथ अपनी संभावनाओं के विकास में समर्थ बनाएगा।
स्वराज
● स्वतंत्रता की समानार्थी अवधारणा ‘स्वराज’ है। स्वराज का अर्थ ‘स्व’ का शासन भी हो सकता है और ‘स्व’ के ऊपर शासन भी हो सकता है।
● तिलक के प्रसिद्ध कथन ‘स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा’ को प्रेरित किया।
● गाँधी के ‘हिन्द स्वराज’ में प्रकट हुई है। हिंद स्वराज के शब्दों में, “जब हम स्वयं पर शासन करना सीखते हैं तभी स्वराज है”। स्वराज केवल स्वतंत्रता नहीं ऐसी संस्थाओं से मुक्ति भी है, जो मनुष्य को उसी मनुष्यता से वंचित करती है।
हमे प्रतिबंधों की आवश्यकता क्यों है?
● हम ऐसी दुनिया में नहीं रह सकते जिसमें कोई प्रतिबंध ही न हो। हमें कुछ प्रतिबंधों की तो जरूरत है, अन्यथा समाज अव्यवस्था की गर्त में पहुँच जाएगा। लोगों के बीच मत-मतांतर हो सकते हैं, उनकी महत्त्वाकांक्षाओं में टकराव हो सकता है, वे सीमित साधनो के लिए प्रतिस्पर्धी हो सकते हैं।
स्वतंत्रता के बारे में नेताजी सुभाष चन्द्र के विचार
● स्वतंत्रता से मेरा आशय ऐसी सर्वांगीय स्वतंत्रता है-जो व्यक्ति और समाज की हो हालाँकि महत्त्वपूर्ण सवाल यह पहचानना है कि स्वतंत्रता पर कौन-सा प्रतिबंध आवश्यक और औचित्यपूर्ण है और कौन-सा नहीं? कौन-सी सत्ता औचित्यपूर्णक यह कह सकती है कि क्या किया जा सकता है और कया नहीं? और क्या हमारे जीवन के कुछ क्षेत्र और कार्य ऐसे हैं, जिन्हें सभी बाहरी प्रतिबंधों से मुक्त छोड़ दिया जाना चाहिए?
हानि सिद्धांत
● जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपने निबंध ‘ऑन लिबर्टी’ में बहुत प्रभावपूर्ण तरीके से उठाया है। राजनीतिक सिद्धांत के विमर्श में इसे ‘हानि सिद्धांत’ कहा जाता है।
● “सिद्धांत यह है कि किसी के कार्य करने की स्वतंत्रता में व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से हस्तक्षेप करने का इकलौता लक्ष्य आत्म-रक्षा है। सभ्य समाज के किसी सदस्य की इच्छा के खिलाफ शक्ति के औचित्यपूर्ण प्रयोग का एकमात्र उद्देश्य किसी अन्य को हानि से बचाना हो सकता है।”
● मिल ने यहाँ एक महत्त्वपूर्ण विभेद को सामने रखा। मिल ने ‘स्वसंबद्ध वे कार्य हैं, जिनके प्रभाव केवल इन कार्यों को करने वाले व्यक्ति पर पड़ते हैं जबकि परसंबद्ध कार्य वे हैं जो कर्ता के अलावा बाकी लोगों पर भी प्रभाव डालते हैं मिल का तर्क है कि स्वसंबद्ध कार्य और निर्णयों के मामले में राज्य या किसी बाहरी सत्ता को कोई हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है। आसान शब्दों में कहें तो, स्वसंबद्ध कार्य वे हैं जिनके बारे में कहा जा सके ‘ये मेरा काम है, मैं इसे वैसे करूँगा, जैसा मेरा मन होगा।’ या “अगर ये आपके ऊपर असर नहीं डालते तो इससे आपको क्या मतलब हैँ?” इसके विपरीत ऐसे कार्यों में जो दूसरों पर असर डालते है या जिनसे बाकी लोगों को कुछ हानि हो सकती है, बाहरी प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में परसंबद्ध कार्य वे हैं जिनके बारे में कहा जा सके कि अगर तुम्हारी गतिविधयों से मुझे कुछ नुकसान होता है, तो किसी न किसी बाहरी सत्ता को चाहिए कि मुझे इन नुकसानों से बचाए।“ स्वतंत्रता से जुड़े मामलों में राज्य किसी व्यक्ति को ऐसे कार्य करने से रोक सकता है जो किसी अन्य को नुकसान पहुँचाता हो।
● चूँकि स्वतंत्रता मानव समाज के केन्द्र में है और गरिमापूर्ण मानव जीवन के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है, इसलिए इस पर प्रतिबंध बहुत ही खास स्थिति में लगाए जा सकते हैं। प्रतिबंध लगाने के लिए जरूरी है कि किसी को होने वाली ‘हानि’ गंभीर हो। छोटी-मोटी ‘हानि’ के लिए मिल कानून की ताकत की जगह केवल सामाजिक रूप से अमान्य करने के सुझाव देता है।
उदारवाद
● एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में उदारवार को सहनशीलता के मूल्य के साथ जोड़ कर देखा जाता है। उदारवादी चाहे किसी व्यक्ति से असहमत हों, तब भी वे उसके विचार और विश्वास रखने और व्यक्त करने के अधिकार का पक्ष लेते हैं। लेकिन उदारवाद इतना भर नहीं है और न ही उदारवाद एकमात्र आधुनिक विचारधारा है जो सहिष्णुता का समर्थन करती है।
● उदारवादी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को समानता जैसे अन्य मूल्यों से अधिक वरीयता देते हैं। वे आमतौर पर राजनीतिक सत्ता को भी संदेह की नजर से देखते हैं।
● ऐतिहासिक रूप से उदारवाद ने मुक्त बाजार और राज्य की न्यूनतम भूमिका का पक्ष लिया है। हालाँकि अब वे कल्याणकारी राज्य की भूमिका को स्वीकार करते हैं और मानते हैं कि सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को कम करने वाले उपायों की जरूरत है।
सकारात्मक एवं नकारात्मक स्वतंत्रता
● दो आयामों की चर्चा की थी। बाहरी प्रतिबंधों के अभाव के रूप में स्वतंत्रता और स्वयं को अभिव्यक्त करने के अवसरों के विस्तार के रूप में स्वतंत्रता। राजनीतिक सिद्धांत में इन्हें नकारात्मक और सकारात्मक स्वतंत्रता कहते हैं। नकारात्म्क स्वतंत्रता उस क्षेत्र को पहचानने और बचाने का प्रयास करती है जिसमें व्यक्ति अनुलंघनीय हो। जिसमें वह जो होना, बनना या करना चाहे हो सके, बन सके और कर सके। यह ऐसा क्षेत्र होगा जिसमें किसी बाहरी सत्ता का हस्तक्षेप नहीं होगा। यह छोटा-सा पवित्र क्षेत्र है, जिसमें व्यक्ति कुछ भी करे, लेकिन उसमें हस्तक्षेप नहीं किया जाता।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
● ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का मुद्दा ‘अहस्तक्षेप के लघुत्तम क्षेत्र’ से जुड़ा हुआ माना जाता है। जे.एस.मिल ने सबल तर्क रखे हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रतिबंधित नहीं होनी चाहिए। यह चर्चा के लिए एक अच्छा प्रसंग है।
● बहुत बार किसी पुस्तक, नाटक, फिल्म या किसी शोध पत्रिका के लेख पर प्रतिबंध लगाने की माँग उठती है। किसी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की माँग को इस चर्चा के आलोक में देखा जाए। अभी तक हमने स्वतंत्रता को विकल्प निर्धारण के रूप में देखा जहाँ, सकारात्मक और नकारात्मक स्वतंत्रता के बीच फर्क किया गया। जहाँ हमने स्वतंत्रता पर न्यायोचित सीमाएँ लगाने की जरूरत को स्वीकार किया, लेकिन साथ ही यह भी माना कि इन सीमाओं को उचित प्रक्रिया और महत्त्वपूर्ण नैतिक तर्कों के समर्थन की जरूरत है।
● वाल्तेयर का कथन याद करें, ”तुम जो कहते हो मैं उसका समर्थन नहीं करता। लेकिन मैं मरते दम तक तुम्हारे कहने के अधिकार का बचाव करूँगा।” हम इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से कितनी गहराई से प्रतिबद्ध हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
● 19वीं शताब्दी के ब्रिटेन के एक राजनीतिक विचारक जॉन स्टुअर्ट मिन ने अभिव्यक्ति तथा विचार और वाद-विवाद की स्वतंत्रता का बहुत ही भावपूर्ण पक्ष प्रस्तुत किया है। अपनी पुस्तक ‘ऑन लिबर्टी’ में उसने चार कारण पेश किए है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उन्हें भी होनी चाहिए जिनके विचार आज भी होनी चाहिए जिनके विचार आज की स्थितियों में गलत या भ्रामक लग रहे हों।
● पहला कारण तो यह कि कोई भी विचार पूरी तरह से गलत नहीं होता है। जो हमें गलत लगता है उसमें सच्चाई का तत्त्व होता है। अगर हम गलत विचार को प्रतिबंधित कर देंगे तो इसमें छुपे सच्चाई के अंश को भी खो देंगे।
● दूसरा कारण पहले कारण से जुड़ा है। सत्य स्वय में उत्पन्न नहीं होता। सत्य विरोधी विचारों के टकराव से पैदा होता है। जो विचार आज गलत प्रतीत होता है वह सही तरह के विचारों के उदय में बहुमूल्य हो सकता है।
● तीसरा कारण विचारों का यह संघर्ष केवल अतीत में ही मूल्यवान नहीं था, बल्कि हर समय में इसका सतत महत्त्व है। सत्य के बारे यह खतरा हमेशा होता है कि वह एक विचारहीन और रूढ़ उक्ति में बदल जाए। जब हम इसे विरोधी विचार के सामने रखते हैं तभी इस विचार का विश्वासनीय होना सिद्ध होता है।
● अंतिम बात यह कि हम इस बात को लेकर भी निश्चित नहीं हो सकते कि जिसे हम सत्य समझते हैं वही सत्य है। कई बार जिन विचारों को किसी समय पूरे समाज ने गलत समझा और दबाया था, बाद में सत्य पाए गए। कुछ समाज ऐसे विचारों का दमन करते हैं ‘जो आज उनके लिए स्वीकार्य नहीं है’ लेकिन ये विचार आने वाले समय में बहुत मूल्यवान ज्ञान में बदल सकते हैं। दमनकारी समाज ऐसे संभावनाशील ज्ञान के लाभों से वंचित रह जाते हैं।
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