आज की इस पोस्ट में हम उत्तर प्रदेश की मिट्टी के बारे में पढ़ेंगे | अगर आप इस टॉपिक से संबंधित नोट्स ढूंढ रहे है है तो आपको हमारी Uttar Pradesh Ki Mitti पोस्ट के आलावा अन्य कहीं से मिट्टी के बारे में पढने की आवश्यकता नहीं होगी क्योकि हम विधार्थियो को ऐसे नोट्स उपलब्ध करवाते है जो बिल्कुल सरल एवं आसान भाषा में तैयार किये गए हो |
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उत्तर प्रदेश की मिट्टी एवं उनके प्रकार
Table of contents
पृथ्वी की सबसे उपरी सतह की उथली परतों को मृदा की संज्ञा दी जाती है। मृदा का निर्माण चट्टानों के विघटन एवं वियोजन के फलस्वरूप होता है। मृदा में विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ एवं जीव निवास करते हैं। मृदा में कार्बनिक तथा अकार्बनिक तत्त्व पाए जाते हैं। मृदा में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीव ह्यूमस का निर्माण करते हैं।
उत्तर प्रदेश के भौतिक विभाजन के मुख्य आधारों में भूमि एवं मृदा समूहों का अध्ययन प्रदेश के भौतिक विभाजन के अनुरूप ही किया जाना श्रेयस्कर है।
1. भाँभर एवं तराई क्षेत्र की मृदाएँ
भाँभर क्षेत्र की मृदा हिमालय के गिरपदीय क्षेत्रों में पाई जाती है। हिमालय से निकलने वाली नदियों द्वारा लाए गए निपेक्ष से यहाँ की मृदा का निर्माण हुआ है। यहाँ की मृदा मोटे बालू एवं कंकड़ों से निर्मित है। इस क्षेत्र में कृषि कार्य अत्यन्त दुरूह है। तराई क्षेत्र की मृदा भाँभर की अपेक्षा अधिक महीन कणों से निर्मित है। यहाँ मृदा समतल, नम एवं उर्वरता से परिपूर्ण है। अत: यहाँ धान एवं गन्ने की पैदावार बहुत अच्छी होती है।
2. मैदानी क्षेत्र की मृदाएँ अथवा गंगा यमुना दोआब क्षेत्र की मृदाएँ
इस भू–भाग में पाई जाने वाली मृदा को जलोढ़क मृदा अथवा कछारी मृदा कहा जाता है। इस मृदा का निर्माण नदियों के बाढ़ग्रस्त मैदानों में कॉप, कीचड़ एवं महीन बालू के मिश्रण से हुआ है। इस क्षेत्र की मृदा को उनकी विशेषता एवं प्रकृति के आधार पर दो मुख्य भागों में विभाजित किया गया है–
i. खादर मृदा – नदियों के बाढ़ वाले मैदानों में ‘खादर मृदा’ की प्रधानता है। यह मृदा प्रतिवर्ष बाढ़ के साथ परिवर्तित होती रहती है। अत: इनकी उर्वरता का स्तर उच्च होता है। इस मृदा का रंग भूरा होता है चूँकि यह महीन छिद्रयुक्त कणों से निर्मित होती हैं इस लिए इस मृदा की जल वहन क्षमता अधिक होती। इनमें जैव तत्त्व, एवं खनिज (चूना, मैग्नीशियम, पोटाश इत्यादि) पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। अत: कृषि कार्य के दौरान फसलों को अतिरिक्त उर्वरक देने की आवश्यकता नहीं होती है।
ii. बाँगर मृदा – मैदानी भू–भाग का वह हिस्सा जहाँ बाढ़ का पानी नहीं पहुँच पाता, उसे ‘बाँगर मृदा’ कहा जाता है। इस मृदा की गहराई तथा परिपक्वता अच्छी होती है। निरन्तर कृषि कार्य करने एवं किसानों द्वारा मृदा का अकुशल प्रबंधन करने के कारण खादर की अपेक्षा बाँगर क्षेत्र की मृदा की उर्वरता में कमी आती जा रही है अत: कृषि कार्य करने के दौरान फसलों को अतिरिक्त उर्वरक देने की आवश्यकता पड़ती है। बाँगर मृदा को अध्ययन की दृष्टि से दो भागों में विभाजित किया जाता है–
(a) लवणीय ऊसर मृदा – इस प्रकार की मृदा में मुख्यत: सोडियम, पोटैशियम, कैल्सियम एवं सल्फेट के लवण होते हैं, जो भूमि के ऊपर महीन परत के रूप में जमे होते हैं, इस मृदा का pH मान 8.5 से कम होता है।
(b) क्षारीय ऊसर मृदा – उत्तर प्रदेश में इसका विस्तार निरन्तर बढ़ता जा रहा है। इस प्रकार की मृदा की सतह सोडियम लवण के कारण काले रंग की होती है। इनका pH मान 8.5 से अधिक होता है।
– भूड़ मृदा – गंगा यमुना के दो आब में बलुई मिट्टी से निर्मित 8 से 10 फिट ऊँचे टीलेनुमा आकृति को भूड़ कहा जाता है। इनका निर्माण प्लिस्टोसीन युग में नदियों द्वारा एकत्र किए गए बालू से हुआ है। यह मृदा हल्की बलुई दोमट प्रकार की होती है।
– काली मृदा – इसे रेगुर, कपासी या करेल मृदा कहा जाता है। इस प्रकार की मृदा जालौन, झाँसी, ललितपुर एवं हमीरपुर में देखी जा सकती है।
3. दक्षिण के पठारी भाग की मृदाएँ
उत्तर प्रदेश के दक्षिणी क्षेत्र में कैम्ब्रियन पूर्व युग की चट्टाने दृष्टिगत होती हैं। इन्हीं चट्टानों के टूट-फूट, विघटन एवं वियोजन के फलस्वरूप मृदाओं का विकास हुआ है। इस सम्पूर्ण भू–भाग के अन्तर्गत मिर्जापुर, सोनभद्र, चन्दौली, महोबा, बाँदा, ललितपुर, झाँसी, हमीरपुर, जालौन, चित्रकूट, चन्दौली एवं दक्षिणी प्रयागराज जनपद सम्मिलित हैं।
यद्यपि इस सम्पूर्ण क्षेत्र की मृदा को बुन्देलखण्ड की मृदा कहा जाता है किन्तु कुछ अन्य विशेषताओं के आधार पर यहाँ की मृदा को लाल, परवा, मार, राकर एवं भोण्टा मृदा में वर्गीकृत किया जाता है।
(a) लाल मृदा – यह मृदा दक्षिणी प्रयागराज, सोनभद्र, मिर्जापुर, चन्दौली एवं झाँसी जनपदों में पाई जाती है। यह मृदा विन्ध्य चट्टानों के विघटन से निर्मित हुई है। इस मृदा में जहाँ आयरन प्रचुर मात्रा में उपस्थित रहता है, वहीं इसमें जैव तत्त्व, नाइट्रोजन, चूना व फॉस्फोरस की कमी होती है। ऐसी मृदा में तिलहन तथा दलहन की कृषि होती है।
(b) परवा मृदा – यह मृदा हल्के लाल रंग की बलुई दोमट प्रकार की होती है। यह जालौन, हमीरपुर एवं यमुना द्वारा निर्मित बीहड़ के क्षेत्रों में पाई जाती है। इस मृदा में जैविक तत्त्वों का अंश नहीं होने के कारण उर्वरक एवं सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। इस मृदा में चना तथा ज्वार की फसल उगायी जाती है।
(c) मार मृदा – यह मृदा उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भू–भाग पर पायी जाती है। इस मृदा में जल एवं आर्द्रता अत्यन्त कम होती है। इस मृदा में दीर्घावधि वाली फसलों का उत्पादन नहीं हो पाता है इसमें सिलिकेट, एल्युमिनियम तथा आयरन के कुछ अंश पाए जाते हैं।
(d) राकर मृदा – यह ढलानों पर पाई जाने वाली हल्के लाल-भूरे रंग की दानेदार मृदा है। इस मृदा में जीवांशों की कमी होती है। चना एवं तिल इस मृदा में उगाई जाने वाली फसलें हैं।
(e) भोण्टा मृदा – इस मृदा का निर्माण विन्ध्य शैलों के चूर्ण से हुआ है। इस मृदा में कुछ मोटे अनाज उगाए जाते हैं।
| उत्तर प्रदेश की मिट्टी | स्थानीय नाम/अन्य नाम | |
| जलोढ़ मिट्टी | कछारी या भात मृदा | |
| खादर मिट्टी | नवीन जलोढ़, कछारी मिट्टी, दोमट,मटियारी, सिल्ट, बलुआ | |
| बांगर मिट्टी | पुरानी जलोढ़, उपरहार मिट्टी, मटियार,बलुई-दोमट | |
| लवणीय व क्षारीय मिट्टी (ऊसर मिट्टी) | रेह, कल्लर, बंजर | |
| बलुई मिट्टी के ऊँचे टीले | भूड | |
| काली मिट्टी | रेगुर, करेल या कपास मृदा | |
| बुंदेलखण्ड क्षेत्र की मिट्टियाँ | लाल मृदा, परवा (पड़वा), मार (माड)राकर (राकड़) भोंट | |
| पूर्वी उत्तर प्रदेश की मिट्टी | मांट या बंजर | |
| गंगा के पूर्वी मैदानी भागों की दोमट व बलुई मिट्टा | सिक्ता, धनकर, करियल | |
| उत्तर प्रदेश में पायी जाने वाली मिट्टियाँ एवं क्षेत्र | ||
| बंजर भूमि | पूर्वी उत्तर प्रदेश में (मुख्यतः गोरखपुर, बस्ती,गोण्डा, महराजगंज, सिद्धार्थनगर) | |
मृदा अपरदन
– कृषि भूमि की ऊपरी परत उपजाऊ और उर्वर होती है। वायु एवं जल के प्रभाव के कारण जब इसी उर्वर परत का विनाश होने लगता है तब इसे मृदा अपरदन कहते हैं। उत्तर प्रदेश में जलीय अपरदन की दर सर्वाधिक है। समतल कृषि भूमि में परत अपरदन की क्रिया होती है। इसमें मृदा की उर्वर परत शनैः शनैः समाप्त होने लगती है। इस प्रकार के अपरदन को ‘किसानों की मृत्यु’ कहा गया है।
– क्षुद्र सरिता अपरदन निम्न ढालान वाले कृषि भूमि में होता है। इसमें खेतों में पतली–पतली नालियाँ बन जाती है, जबकि उच्च ढालान वाले खेतों में अवनलिका अपरदन देखने को मिलता है जिसके अंतर्गत बीहड़ों एवं खड्डों का निर्माण हो जाता है। अवनलिका अपरदन से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र चम्बल की घाटी है।
| अपरदन का स्वरूप | सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र | |
| जलोढ़ अपरदन | पूर्वी व दक्षिणी उत्तर प्रदेश(हिमालय का तराई प्रदेश) | |
| परत अपरदन | पूर्वी व उत्तरी उत्तर प्रदेश | |
| क्षुद्र सरिता अपरदन | दक्षिणी उत्तर प्रदेश | |
| अवनालिका अपरदन | पश्चिमी उत्तर प्रदेश(मुख्यतः इटावा जिला) | |
| वायु अपरदन | पश्चिमी उत्तर प्रदेश(मुख्यतः आगरा, मथुरा) | |
| ग्रीष्म ऋतु में वायु अपरदन सर्वाधिक होता है। | ||
स्मरणीय तथ्य
– ग्रीष्म ऋतु में वायु अपरदन सर्वाधिक होता है।
– जलोढ़क मृदा मुख्य रूप से गंगा–यमुना के मैदानी क्षेत्रों में पाई जाती है।
– नवीन जलोढ़क को खादर एवं पुरानी जलोढ़क को बाँगर कहा जाता है।
– गंगा–यमुना का मैदान नदियों द्वारा लाये गए निक्षेप से निर्मित हुआ है।
– कॉप, कीचड़ और महीन बालू से जलोढ़क मृदा का विकास हुआ है। इस मृदा में फॉस्फोरस, नाइट्रोजन तथा जैव तत्त्वों की कमी होती है लेकिन पोटाश और चूना पर्याप्त मात्रा में होता है।
– गंगा–यमुना के मैदान में जो लवणीय एवं क्षारीय मृदा पाई जाती है उनको ऊसर, बंजर, कल्लर या रेह कहा जाता है।
– उत्तर प्रदेश में अवनलिका अपरदन से प्रभावित जिले आगरा तथा इटावा हैं जबकि नदी क्षेत्रों में चम्बल नदी का क्षेत्र अवनलिका अपरदन से बुरी तरह प्रभावित है। मथुरा व आगरा वायु अपरदन से प्रभावित क्षेत्र है।
– प्रदेश का बुन्देलखण्ड क्षेत्र शुष्क कृषि के लिए आदर्श स्थान है।
– परत अपरदन को ‘किसानों की मृत्यु’ कहा गया है।
– फसल चक्र अपनाने से उर्वरा शक्ति का ह्रास बेहद कम होता है।
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