कोशिका एवं कोशिका की संरचना | Biology Classroom Notes

सामान्य विज्ञान एक ऐसा विषय है जो लगभग सभी परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण है अगर आप किसी भी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करते हैं तो उसमें निश्चित ही विज्ञान से संबंधित प्रश्न जरूर पूछे जाते हैं इसलिए इस पोस्ट में हम जीव विज्ञान ( Biology Notes ) के एक टॉपिक कोशिका एवं कोशिका की संरचना ( Cell structure ) के बारे में विस्तार से बताने वाले हैं ताकि आप इस टॉपिक को इसी पोस्ट के माध्यम से पढ़ सके एवं याद कर सके

कोशिका जो की जीव विज्ञान विषय का एक टॉपिक है इससे संबंधित समस्त जानकारी हमें आपके समक्ष साझा की है एवं शार्ट तरीके से नोट्स भी उपलब्ध करवा दिए हैं जिन्हें आप नीचे पढ़ सकते हैं

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Biology Classroom Notes : कोशिका की संरचना

• 1665 ई. में रॉबर्ट हुक ने की थी। उन्होंने कॉर्क के टुकड़े (Section) में कोशिका के बाहरी आवरण को देखा व इसे कोशा नाम दिया, जिसका अर्थ एक सूक्ष्म कक्ष है। (Little Room)

• जीवित कोशिकाओं (Living cells) को सर्वप्रथम 1674 ई. में ल्यूवेनहॉक ने देखा।

• 1831 ई. में रॉबर्ट ब्राउन ने सर्वप्रथम “ऑर्किड” पौधें की जड़ों में कोशिका के केंद्रक (Nucleus) की खोज की।

कोशिका का निर्माण विभिन्न प्रकार के कोशिकाँग से होता है।

• प्रत्येक कोशिकाँग का एक विशिष्ट कार्य होता है, जिसके कारण कोशिका कार्य करने में सक्षम होती है।

कोशिका के तीन भाग हैं-

 1. कोशिका झिल्ली (Cell Membrane)

 2. कोशिका द्रव्य (Cytoplasm)

 3. केंद्रक (Nucleus)

• कोशिका-द्रव्य व केंद्रक को संयुक्त रूप में जीवद्रव्य कहते हैं।

• यह कोशिका के सबसे बाहरी आवरण है।

• यह बहुत पतली, मुलायम और लचीली झिल्ली होती है। 

• कोशिका झिल्ली द्वारा कुछ पदार्थ बाहर आ-जा सकते हैं, इसीलिए इसे अर्द्धपारगम्य या चयनात्मक पारगम्य झिल्ली कहते हैं।

• यह लिपिड व प्रोटीन की बनी होती है। इसमें दो परत प्रोटीन व उनके मध्य एक परत लिपिड की होती है।  

कार्य –

 •  कोशिकाओं में पदार्थों का आवागमन करती है।

•  कोशिका का एक निश्चित आकार बनाए रखती है।

•  यह कोशिका को यांत्रिक सहारा प्रदान करती है तथा जन्तु कोशिका में सीलिया, फ्लैजेला व माइक्रोभिलाई (Microvilli) के निर्माण में सहायक है।

• पादप कोशिका के चारों ओर मोटा व कड़ा आवरण।

• पादपों में सेल्यूलोज की बनी होती है।

• जीवाणु की कोशिका भित्ति पेप्टिडोग्लाइकेन से बनी होती है।

• यह पारगम्य होती है।

कार्य–

•  कोशिका को एक निश्चित रूप प्रदान करना।

•  कोशिका झिल्ली की रक्षा करना।

•  पादप कोशिका को सुरक्षा तथा यांत्रिक सहारा प्रदान करती है।

• यह जीव द्रव्य का वह भाग है, जो कोशिका भित्ति व केंद्रक के बीच पाया जाता है।

• इनमें कई पदार्थ निर्जीव होते हैं जैसे–अकार्बनिक पदार्थ (खनिज, लवण व जल) तथा कार्बनिक पदार्थ (कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन व वसा)।

• यह गाढ़ा पारभासी व चिपचिपा पदार्थ है।

• इसमें अनेक कोशिकाँग पाए जाते हैं, जिनके विभिन्न कार्य होते हैं–

• अन्त:प्रद्रव्यी जालिका की खोज पोर्टर नामक वैज्ञानिक ने की थी।

• कोशिकाओं के कोशिकाद्रव्य में सूक्ष्म, शाखित, झिल्लीदार, अनियमित नलिकाओं का घना जाल है।

• यह कोशिकाओं में बाह्य झिल्ली से प्लाज्मा झिल्ली तक फैली रहती है।

• यह अन्त: कोशिकीय परिवहन तंत्र का निर्माण तथा केन्द्रक से कोशिका द्रव्य में आनुवांशिक पदार्थों के जाने का पथ बनाती है।

• कोशिका विभाजन के दौरान कोशिका प्लेट व केन्द्रक झिल्ली का निर्माण करती है।

• यह जालिका लिपोप्रोटीन से बनी होती है।

यह दो प्रकार की होती है–

(i) चिकनी अन्त:प्रद्रव्यी जालिका

 [Smooth Endoplasmic Reticulum]

 •  इसकी झिल्ली चिकनी होती है।

• यह लिपिड स्राव के लिए उत्तरदायी है।

•  यह वसा एवं कॉलेस्ट्रॉल के संश्लेषण में सहायक है।

(ii) खुरदरी अन्त:प्रद्रव्यी जालिका

 [Rough Endoplasmic Reticulum]

•  इसकी झिल्ली के ऊपर राइबोसोम के छोटे कण पाए जाते हैं।

• यह प्रोटीन संश्लेषण के लिए उत्तरदायी है।

•  वर्ष 1953 में जॉर्ज पैलेड ने खोज की।

• बहुत से राइबोसोम एवं संदेशवाहक आरएनए से मिलकर एक शृंखला बनाते हैं, जिसे पॉलिराइबोसोम अथवा बहुसूत्र (Polyribosome/Polysome) कहते हैं।

• यह प्रोटीन व R.N.A. के बने होते हैं तथा यह प्रोटीन संश्लेषण में सहायक है।

• 1898 ई. में कैमिलो गॉल्जी ने खोज की थी।

• गॉल्जीकाय ग्लाइको प्रोटीन व ग्लाइकोलिपिड के निर्माण का प्रमुख स्थल है।  

• पादप कोशिका के कोशिकाद्रव्य में यह गुच्छों या मुड़ी छड़ के समान बिखरे रहते हैं, जिसे डिक्टियोसोम कहते हैं।

• गॉल्जीकाय की झिल्लियों का सम्पर्क अत: प्रद्रव्यी जालिका के साथ रहता है तथा इनके नीचे की तरफ रिक्तिकाएँ (Vacuoles) पाई जाती हैं।

• गॉल्जीकाय कोशिका का मुख्य स्रवण कोशिकाँग है।

कार्य–

•  लाइसोसोम व पेरॉक्सिसॉम का निर्माण।

• गॉल्जीकाय का मुख्य कार्य द्रव्य को संयोजित कर अंतर-कोशिकी तक या कोशिका के बाहर स्रवण करना है।

•  पादप कोशिका विभाजन के समय कोशिका प्लेट निर्माण।

•  शुक्राणु में एक्रॉसोम (Acrosome) का निर्माण।

•  वर्ष 1955 में क्रिश्चियन डी.डवे ने खोज की। यह एक सूक्ष्म कोशिकाँग, जिसका आकार छोटा व थैली जैसा रहता है।

• यह एंजाइम, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, लिपिड, न्यूक्लिक अम्ल आदि के पाचन में सक्षम है।

• कोशिकीय उपापचय के दौरान कोशिका के क्षतिग्रस्त होने से लाइसोसोम फट जाते हैं तथा इसमें मौजूद जल अपघटनीय (Hydrolytic Enzyme) एंजाइम कोशिका को पाचित कर देते हैं। अंतत: कोशिका की मृत्यु हो जाती है, इसीलिए इसे ‘आत्महत्या की थैली’(Sucidial Bags of Cells) भी कहा जाता है।

•  माइटोकॉण्ड्रिया सन् 1857 में सर्वप्रथम कोलिकर द्वारा देखा गया था तथा सन् 1898 में बेन्डा नामक वैज्ञानिक ने इसे माइटोकॉण्ड्रिया नाम दिया।

• इसे ऊर्जा उत्पन्न करने के कारण, कोशिका का ऊर्जा ग्रह भी कहा जाता है।

• यह आकार व आकृति में परिवर्तनशील है।

• यह दोहरी झिल्ली युक्त संरचना होती है जिसकी बाहरी झिल्ली व भीतरी झिल्ली इसकी सतह को दो स्पष्ट कक्षो में विभाजित करती है– बाह्य कक्ष व भीतरी कक्ष।

• भीतरी कक्ष जो घने व समांगी पदार्थ से भरा होता है। उसे आधात्री या मैट्रिक्स कहते है।

• इसकी अन्त झिल्ली आधात्री की तरफ प्रवर्द्ध बनाती है जिसे क्रिस्टी कहते है।

• माइटोकॉण्ड्रिया का संबंध वायवीय श्वसन से होता है।

• यह विखण्डन द्वारा विभाजित होती है।

•  यह केवल पादप कोशिका एवं कुछ प्रोटोजोआ में पाए जाते हैं, जो कोशिका द्रव्य के चारों ओर बिखरे रहते हैं।

• यह विभिन्न प्रकार के आकार में पाए जाते हैं; जैसे- अंडाकार, गोलाकार आदि।

यह तीन प्रकार के होते हैं-

1.  अवर्णी लवक [leucoplasts]– यह पौधो के उन भागों में पाया जाता है जो सूर्य के प्रकाश से वंचित होते है जैसे – जड़े व भूमिगत तनों में।

•  कार्य – स्टार्च कणिका एक तेलबिन्दु के निर्माण तथा उनका संग्रहण करना।

2.  वर्णी लवक [Chromoplasts]– यह रंगीन लवक होते हैं जो प्राय: लाल, पीले, नारंगी रंग के होते हैं। यह पौधों में पुष्प, फलभित्ति, बीज आदि रंगीन भाग में पाए जाते हैं।

3.  हरित लवक [Chloroplasts]– इसमें एक हरे रंग का पदार्थ पर्णहरित होता है इसलिए यह हरा रंग का होता है जिसकी मदद से पौधा प्रकाश संश्लेषण करता है तथा भोजन बनाता है।

•  यह चारों ओर से अर्द्ध पारगम्य झिल्ली द्वारा आवरित होती है, जिसे टोनोप्लास्ट कहते हैं।

• जन्तु कोशिका में इनका आकार छोटा तथा पादप कोशिका में बड़ा होता है।

 कार्य–

•  जन्तु कोशिका में जल संतुलन करना।

•  पादप कोशिका में स्फीति व कठोरता प्रदान करना।

•  एककोशिकीय जीवों में अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने में सहायक।

•  इसे वॉन बेन्डन ने सर्वप्रथम देखा तथा 1888 ई. में वैज्ञानिक बोवेरी ने इसकी संरचना व कार्य के बारे में बताया। यह केवल जन्तु कोशिका में पाया जाता है, जिसकी आकृति बेलन जैसी होती है।

• कार्य –

•  जन्तु कोशिका विभाजन में मदद करना।

•  सीलिया व फ्लैजेला के निर्माण में सहायक।

• 1831 ई. में रॉबर्ट ब्राउन ने खोज की।

• कोशिका द्रव्य के मध्य गोल, गाढ़ी, संरचना होती है, जिसे केन्द्रक कहते हैं।

• यह कोशिका का प्रमुख अंग है जो कोशिका के प्रबंधक के समान कार्य करता है।

• इसमें उपस्थित केंद्रक छिद्र केंद्रक द्रव्य व कोशिका द्रव्य के पदार्थों का आदान-प्रदान करता है।

• केन्द्रक में धागेनुमा पदार्थ जाल रूप में फैला रहता है उसे क्रोमैटिड कहते है। क्रोमैटिड नाम फ्लेंमिंग ने दिया था।

• ‘क्रोमैटिड’ डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक अम्ल (DNA) व प्रोटीन के बने होते हैं। 

कार्य–

•  कोशिका में उपापचयी व रासायनिक क्रियाओं का नियंत्रण करना।

• प्रोटीन संश्लेषण (Protein Synthesis) के लिए R.N.A. उत्पन्न करना।

• केन्द्रिका [Nucleolus] – केंद्रक के केन्द्रकद्रव्य में एक छोटी गोलाकार या अण्डाकार संरचना को केन्द्रिका कहते हैं।

 कार्य – इसमें राइबोसोम के लिए RNA का संश्लेषण होता है।

• गुणसूत्र – कोशिका विभाजन के दौरान क्रोमैटिन जालिका के धागे अलग होकर छोटी व मोटी छड़ में परिवर्तित होते हैं, जिन्हें गुणसूत्र कहा जाता है।

• कोशिका में गुणसूत्र महीन लम्बे व अत्यधिक कुण्डलित धागे के रूप में पाए जाते हैं।

• गुणसुत्रों में अनेक जीन स्थित होते है जीन DNA का क्रियात्मक खण्ड है। यह जीन गुणसूत्र पर स्थित होते हैं व गुणसूत्रों के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आनुवंशिक लक्षण हस्तांतरित होते हैं। इस कारण गुणसूत्र को “वंशागति का वाहक” कहा जाता है।

प्रत्येक गुणसूत्र के तीन भाग होते हैं-

1. पेलिकल – गुणसूत्र का बाहरी आवरण।

2. मैट्रिक्स – पेलिकल से घिरा हुआ भाग।

3. क्रोमेटिड्स – मैट्रिक्स में दो समानान्तर कुण्डलित धागों के समान रचना होती है, जो गुणसूत्र की पूरी लम्बाई में उपस्थित होती है उन्हें क्रोमेनिमाटा कहते है। प्रत्येक क्रोमेनिमाटा को क्रोमैटिड कहते है।

• दोनों क्रोमैटिड एक निश्चत स्थान पर एक दूसरे से जुड़ते हैं जिसे सेन्ट्रोमीयर कहते है।

• क्रोमैटिड DNA एवं हिस्टोन प्रोटीन का बना होता है।

• टेलोमीयर – गुणसूत्र का शीर्ष भाग होता है।

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