मौर्य साम्राज्य का इतिहास एवं पतन के कारण ( 1 ) : Toppers Notes

क्या आप मौर्य साम्राज्य का इतिहास एवं पतन के कारण के बारे में जानना चाहते है ? अगर नहीं ! तो आपको हमारी यह पूरी पोस्ट जरूर पढ़ना चाहिए जिसमे हम मौर्य साम्राज्य से संबंधित लगभग सभी महवपूर्ण बातें शेयर की है | अगर आप किसी भी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे है तो यह टॉपिक आपको भारत का इतिहास विषय में पढ़ने के लिए मिलता है 

अगर आप इस टॉपिक को अच्छे से क्लियर करना चाहते है तो नीचे हमने सम्पूर्ण नोट्स उपलब्ध करवा दिया है आप उन्हें एक बार जरूर पढ़े 

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मौर्य साम्राज्य का इतिहास एवं पतन के कारण

♦ मौर्य काल

–     मगध के विकास के साथ मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन पश्चिम में अफगानिस्तान और ब्लूचिस्तान तक विस्तृत था।

मौर्यकालीन इतिहास के स्रोत :

–     मौर्य इतिहास का उल्लेख करने वाले अन्य साहित्यिक स्रोत में चाणक्य का अर्थशास्त्र, क्षेमेन्द्र की ‘वृहत‌्‌कथा मंजरी’, कल्हण की राजतरंगिणी, विशाखदत्त का ‘मुद्राराक्षस’ तथा सोमदेव का ‘कथासरित्सागर’ आता है।

–     धार्मिक साहित्यिक स्रोत में पुराणों से मौर्यकालीन इतिहास की जानकारी मिलती है।

–     बौद्ध ग्रंथों में जातक, दीर्घनिकाय, दीपवंश, महावंश, तथा दिव्यावदान से मौर्यकाल के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। जैन ग्रंथों में भद्रबाहु के कल्पसूत्र एवं हेमचन्द्र के परिशिष्टपर्वन से मौर्यकालीन जानकारी प्राप्त होती है।

–     अशोक के वृहत् शिलालेख, लघु शिलालेख, स्तंभ लेख, गुहा लेख आदि।

–     रुद्रदामन का गिरनार स्थित जूनागढ़ अभिलेख भी मौर्यकाल के विषय में जानकारी प्रदान करता है।

♦ अर्थशास्त्र :-

–     अर्थशास्त्र, कौटिल्य या चाणक्य (चौथी शताब्दी ईसा पूर्व) द्वारा रचित संस्कृत का एक ग्रन्थ है। इसमें राज्यव्यवस्था, कृषि, न्याय एवं राजनीति आदि के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है। अपने तरह का (राज्य-प्रबन्धन विषयक) यह प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसकी शैली उपदेशात्मक और सलाहात्मक (instructional) है।

–     अर्थशास्त्र कुल 15 अधिकरणों (भागों) में विभक्त  है यह “राजनीति” से प्रेरित ग्रन्थ है।

–     सप्तांग सिद्धांत :- राज्य को सुव्यवस्थित रूप से संचालित करने हेतु राज्य के सात अंग बताए गए है –

♦ इण्डिका:-

–     मेगस्थनीज सेल्युकस निकेटर द्वारा चंद्रगुप्त मौर्य की राज्य सभा में भेजा गया था। यह यूनानी राजदूत था। इसके पूर्व वह आरकोसिया के क्षत्रप के दरबार में सेल्युकस का राजदूत रह चुका था। संभवतः वह 305 से 298 ई. पू. के बीच किसी समय पाटलिपुत्र की सभा में उपस्थित हुआ था।

–     मेगस्थनीज ने बहुत समय तक मौर्य दरबार में निवास किया। भारत में रहकर उसने जो कुछ भी देखा सुना उसे उसने इंडिका (Indica) नामक अपनी पुस्तक में लिपिबद्ध किया। दुर्भाग्यवश यह ग्रंथ अपने मूल रूप में आज प्राप्त नहीं है, तथापि उसके अंश उद्धरण रूप में बाद के अनेक यूनानीरोमीय (Greco-Roman) लेखकों – एरियन, स्ट्रेबो, प्लिनी की रचनाओं में मिलते हैं।

–     मेगस्थनीज के अनुसार सबसे बड़ा नगर पाटलिपुत्र था जिसे उसने पोलीब्रोथा कहा है। इण्डिका में मौर्य कालीन प्रशासन को छह समितियों द्वारा चलाने का विवरण है जिसमें प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे।

–     मेगस्थनीज के अनुसार भारतीय समाज 7 जातियों में विभाजित था-

I.  दार्शनिक                     II.      कृषक                                  

III.  शिकारी/पशुपालक     IV.    व्यापारी/शिल्पी

V.  योद्धा                        VI.    निरीक्षक (इंस्पेक्टर)

VII. मंत्री

♦ मुद्राराक्षस:-

     इसमें चन्द्रगुप्त मौर्य को वृषल कहा गया है।

–     मुद्राराक्षस संस्कृत का ऐतिहासिक नायिका विहीन नाटक है, जिसके रचयिता विशाखदत्त हैं। इसकी रचना चौथी शताब्दी में हुई थी।

–     इसमें चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य संबंधी ख्यात वृत्त के आधार पर चाणक्य की राजनीतिक सफलताओं का अपूर्व विश्लेषण मिलता है।

♦ राजतरंगिणी:-  

–     राजतरंगिणी, कल्हण द्वारा रचित एक संस्कृत ग्रन्थ है। ‘राजतरंगिणी’ का शाब्दिक अर्थ है – राजाओं की नदी, जिसका भावार्थ है – ‘राजाओं का इतिहास या समय-प्रवाह’। यह कविता के रूप में है।

मौर्य साम्राज्य की स्थापना

चद्रगुप्त मौर्य : (322 .पू.-298 .पू.)

–     चन्द्रगुप्त 25 वर्ष की आयु में चाणक्य की सहायता से अंतिम नन्द शासक घनानंद को पराजित कर पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठा।

–     विलियम जोन्स पहले विद्वान थे, जिन्होंने ‘सेंड्रोकोट्स’ की पहचान भारतीय ग्रंथों में वर्णित चन्द्रगुप्त से की।

–     मुद्राराक्षस चन्द्रगुप्त मौर्य को शुद्र (वृषल कुल में उत्पन्न) तथा स्पूनर महोदय उसे “पारसीक” मानते हैं।

–     सर्वप्रथम ग्रुनवेडेल महोदय ने बताया कि मयूर मौर्यों का राजचिह्न था

–     305 ई.पू. या उसके आसपास बैक्ट्रिया के शासक सेल्युकस तथा चन्द्रगुप्त के बीच उत्तर – पश्चिमी भारत पर आधिपत्य के लिए एक भीषण युद्ध हुआ जिसमें सेल्युकस की हार हुई। युद्ध का निर्णय मौर्यों के पक्ष में रहा और इसकी समाप्ति के बाद दोनों के मध्य एक संधि हुई।

–     संधि की शर्तों का उल्लेख स्ट्रेबो ने किया है। सेल्युकस ने चन्द्रगुप्त को चार प्रान्त एरिया (हेरात), अराकोसिया (कंधार), जेड्रोसिया (मकरान), ब्लूचिस्तान तथा पेरिपेनिसदई (काबुल) दिए।

–     सेल्युकस और चन्द्रगुप्त के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित हुए।

–     चन्द्रगुप्त ने सेल्युकस को 500 हाथी उपहार में दिए।

–     सेल्युकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में अपना एक राजदूत मेगस्थनीज भेजा।

–     जैन परम्परा के अनुसार अपने जीवन के अंतिम दिनों में चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया और अपने पुत्र बिन्दुसार के पक्ष में सिंहासन छोड़ दिया। जैन संत भद्रबाहु के साथ वह मैसूर के निकट श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) चले गये, जहाँ एक सच्चे जैन मुनि की तरह उपवास द्वारा उन्होंने शरीर त्याग दिया (सल्लेखना विधि)

बिन्दुसार : (298 .पू.-273 .पू.)

–     चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र बिन्दुसार उसका उत्तराधिकारी हुआ।

–     बिन्दुसार ने अपने बड़े पुत्र सुसीम को तक्षशिला का तथा अशोक को उज्जयिनी का राज्यपाल नियुक्त किया था।

–     दिव्यावदान के अनुसार उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला (पाकिस्तान) में विद्रोह हुआ, जिसे शांत करने के लिए बिन्दुसार ने अपने पुत्र अशोक को भेजा था।

–     यूनानी शासक एण्टियोकस (सीरीया) ने बिन्दुसार के दरबार में डाइमेकस नामक राजदूत भेजा था।

–     मिस्र के राजा टालेमी द्वितीय फिलाडेल्कस ने डाइनोसियस को बिन्दुसार के दरबार में भेजा था।

–     बिन्दुसार आजीवक सम्प्रदाय का अनुयायी था।

–     यूनानियों ने बिन्दुसार को “अमित्रचेट्स या अभित्रघात” कहा है।

–     इसका अन्य नाम “सिंहसेन” भी था।

अशोक (273 .पू.-232 .पू.):

–     अशोक के प्रारम्भिक जीवन के बारे में अभिलेखों से कोई जानकारी नहीं मिलती है। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार उसकी माता का नाम सुभद्रांगी था। जैन ग्रंथों के अनुसार अशोक ने बिन्दुसार की इच्छा के विरुद्ध मगध के शासन पर अधिकार किया था, पुराणों में अशोक को ‘अशोकवर्धन’ तथा दीपवंश में ‘करमोली’ कहा गया है।

–     अशोक को भाब्रु अभिलेख में “प्रियदर्शी” तथा मास्की अभिलेख में “बुद्धशाक्य” कहा गया है।

–     धम्म प्रचारक के रूप में सम्राट अशोक का पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा श्रीलंका गये थे।

अशोक के अभिलेख

–     अभिलेख उन्हें कहते हैं जो पत्थरधातु या मिट्टी के बर्तन जैसी कठोर सतह पर खुदे होते हैं। अभिलेखों में उन लोगों की उपलब्धियाँक्रियाकलाप या विचार लिखे जाते हैं जो उन्हें बनवाते हैं। इनमें राजाओं के क्रियाकलाप तथा महिलाओं और पुरुषों द्वारा धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का ब्योरा होता है। 

–     अशोक ने भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वप्रथम शिलालेख का प्रचलन किया था। शिलालेखों के माध्यम से राज्यादेशों तथा उपलब्धियों को संकलित किया गया था जिनमें वह जनता को संबोधित करता है।

–     सर्वप्रथम 1750 ई. में टीफेन्थैलर महोदय ने अशोक के दिल्ली – मेरठ स्तम्भ का पता लगाया था।

–     सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप को 1837 ई. में अशोक के अभिलेखों की खोज को पढ़ने में सफलता प्राप्त हुई सर्वप्रथम दिल्ली-टोपरा लेख को पढ़ा गया था ।

–     अशोक के अभिलेखों की भाषा प्राकृत है।

–     अशोक के अभिलेख आरमाइक, खरोष्ठी, यूनानी एवं ब्राह्मी लिपियों में पाए गए हैं। लघमान लेख आरमाइक लिपि में हैं। मानसेहरा एवं शाहबाजगढ़ी से खरोष्ठी लिपि के शिलालेख प्राप्त हुए हैं।

–     अशोक के अभिलेख को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- शिलालेख, स्तम्भलेख एवं गुहालेख।

–     शिलालेखों की संख्या 14 हैं, जो आठ भिन्न – भिन्न स्थानों से प्राप्त किए गए हैं-

अशोक के प्रमुख शिलालेख

शिलालेखस्थानलिपि
शाहबाजगढ़ीपेशावर (पाक)खरोष्ठी
मानसेहराहजारा (पाकिस्तान)खरोष्ठी
कलसीदेहरादून (उत्तरांचल)ब्राह्मी
गिरनारजूनागढ़ (गुजरात)ब्राह्मी
एर्रगुड़ीकुर्नूल (आंध्र प्रदेश)ब्रुस्टोफेदन
धौलीपुरी (ओडिशा)ब्राह्मी
जौगढ़गंजाम (ओडिशा)ब्राह्मी
सोपाराथाणे (महाराष्ट्र)ब्राह्मी

अशोक के विभिन्न नाम एवं उपाधियाँ

अशोकव्यक्तिगत नाम, उल्लेख – मास्की, गुर्जरा, नेतुर एवं उडेगोलम अभिलेख में
देवनांपिय प्रियदर्शीराजकीय उपाधि आधिकारिक नाम
अशोकवर्द्धनपुराण में उल्लेख

स्तम्भ लेख

–   स्तम्भ लेख की संख्या 7 हैं जो 6 अलग-अलग स्थानों से मिले हैं।

स्तम्भलेख: Iअशोक के राज्याभिषेक के 26 वर्ष बाद लिखित।
धम्म के पालन, सम्मान, उत्साह और आत्मनिरीक्षण द्वारा आनंद प्राप्ति का उल्लेख।
स्तम्भलेख: IIधम्म की विशेषताओं यथा-शुभ, करुणा, उदारता,सत्यता, पुण्यवर्धक, पापनाशक आदि का उल्लेख।
स्तम्भलेख: IIIमनुष्य को आत्मचिंतन करने, दुर्गुणों का निदान करने और सद् गुणों को अपनाने की शिक्षा का उल्लेख।
स्तम्भलेख:- IVरज्जुकों के कर्तव्यों का उल्लेख।
स्तम्भलेख:- Vकुछ पशु-पक्षियों का वध निषिद्ध एवं 25 कैदियों को मुक्त करने का वर्णन।
स्तम्भलेख:- VIप्रजा के कल्याण एवं लाभ के लिए धम्मलिपि लिखवाने एवं धम्म का वर्णन।
स्तम्भलेख:- VIIअशोक द्वारा धम्म के अनुपालन में किए गए कार्यों का वर्णन।

अन्य स्तंभलेख

–     रुम्मिनदेई स्तंभलेख: इस स्तंभलेख में अशोक की लुम्बिनी यात्रा और लुम्बिनी के लोगों को कर में दी गई छूट का वर्णन उसने  कर की दर को घटाकर 1/8 कर दिया।

–     निगालीसागर स्तंभलेख: यह स्तंभलेख मूलतः “कपिलवस्तु” में स्थित था। इस स्तंभलेख में कहा गया है कि अशोक ने “कनकमुनि बुद्ध” के स्तूप की ऊँचाई को बढ़ाकर दुगुना कर दिया था।

–     अकबर ने कौशांबी में स्थित प्रयाग स्तम्भ लेख को इलाहाबाद के किले में स्थापित कराया।

–     दिल्ली – टोपरा तथा दिल्ली – मेरठ स्तम्भ लेख को फिरोजशाह तुगलक ने दिल्ली में स्थापित करवाया।

लघु स्तम्भ लेख :

–     लघु स्तम्भ लेख पर अशोक की “राजकीय घोषणाओं” का उल्लेख है। साँची (रायसेन, मध्य प्रदेश), कौशांबी (इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश), सारनाथ (वाराणसी, उत्तर प्रदेश), रुम्मिनदेई (नेपाल), निग्लीवा (निगाली सागर, नेपाल) तथा इलाहाबाद से लघु स्तम्भ लेख मिले हैं।

–     इलाहाबाद स्तम्भ लेख को ’रानी का लेख‘ भी कहा जाता है।

      अशोक और बौद्ध धर्म  (कौशाम्बी स्तम्भ लेख):

–     प्रारम्भ में अशोक ब्राह्मण धर्म में विश्वास करता था। अशोक के इष्टदेव शिव थे।

–     अभिलेखों के अनुसार अशोक के बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त को जाता है।

–     भाब्रु शिलालेख में अशोक ने बौद्ध, संघ और धम्म में विश्वास व्यक्त किया है (अशोक के बौद्ध होने का प्रमाण)

–     अशोक का ‘धम्म’ बौद्ध धर्म नहीं था। तीसरे एवं सातवें स्तम्भ लेख में अशोक ने युक्त, रज्जुक तथा प्रादेशिक नामक पदाधिकारी को जनता के बीच धर्म एवं प्रचार करने का आदेश दिया।

–     अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने 84000 स्तूपों का निर्माण करवाया था।

–     बराबर पहाड़ी पर अशोक ने आजीवकों के लिए कर्ण, चौपार, सुदामा व विश्व झोपड़ी गुफा का निर्माण करवाया था।

–     बृहद्रथ मौर्य वंश का अंतिम शासक था।

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