इस पोस्ट में आज हम शीत युद्ध ( Cold War ) के बारे में बात करने वाले है ट्रिक से संबंधित आपको भारतीय राजव्यवस्था विषय में पढ़ने के लिए मिलता है आज हम जानेंगे कि शीत युद्ध क्या है एवं इसके प्रमुख कारण के बारे में पढ़ेंगे | अगर आप इस टॉपिक को अच्छे से क्लियर करना चाहते हैं तो हमारे द्वारा उपलब्ध करवाए गए नोटिस को जरूर पढ़ें
शीत युद्ध के बारे में हम आपको विस्तार से संपूर्ण जानकारी अलग-अलग पार्ट के माध्यम से समझाइए ताकि आप इसे सरल एवं आसान भाषा में अच्छे से याद कर सके
Table of contents
शीत युद्ध
द्वितीय विश्व युद्ध में मित्र-राष्ट्रों की अगुवाई अमेरिका, सोवियत संघ, ब्रिटेन और फ्रांस कर रहे थे, जबकि धुरी-राष्ट्रों की अगुवाई जर्मनी, इटली, जापान कर रहे थे।
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद शीत-युद्ध शुरू हुआ। 6 अगस्त, 1945 को हिरोशिमा और 9 अगस्त, 1945 को नागासाकी पर अमेरिका ने परमाणु बम (जिन्हें ‘लिटिल ब्वॉय’ और ‘फैटमैन’ नाम दिए गए) गिराए।
शीत-युद्ध शब्द का प्रयोग 19 अक्टूबर, 1945 को जॉर्ज ऑरवेल ने अपने लेख ‘You and the Atom Bomb’ में किया, लेकिन भू-राजनीतिक के संदर्भ में शीत-युद्ध शब्द का प्रथम प्रयोग 16 अप्रैल, 1947 को बर्नाड एच.बारूच ने दक्षिणी कैरोलिना (U.S.A) विधानमंडल में दिए भाषण में किया– ‘We are today in the midest in cold war. Our enemies are to be abroad and at home. ‘
इसके बाद फ्रांसीसी पत्रकार वाल्टर लिपमैन की पुस्तक – ‘Cold war’– 1947 से यह शब्द प्रसिद्ध हो गया।
शीत-युद्ध के लक्षण
1. शीत-युद्ध में प्रोपेगेंडा का महत्त्व था अर्थात् यह वाक्युद्ध था- हथियार थे- कागज के गोले, पत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो स्टेशन।
2. यह स्नायु युद्ध अर्थात् मनोवैज्ञानिक युद्ध था- जिसने मस्तिष्क में प्रश्रय लिया।
3. यह दो शिविरों के मध्य निरंतर तनाव पूर्ण स्थिति थी।
4. यह सशस्त्र शांति का युग था।
5. यह प्रत्यक्ष युद्ध से भी ज्यादा भयानक था।
6. एक को लाभ तो दूसरे को हानि। (सोवियत संघ बनाम संयुक्त राज्य अमेरिका)
शीत युद्ध की परिभाषा
नेहरू– शीत-युद्ध पुरातन शक्ति संतुलन अवधारणा के नए रूप में यह दो विचारधाराओं का संघर्ष न होकर दो भीमकाय शक्तियों का आपसी संघर्ष है।
नेहरू के अनुसार, “शीत-युद्ध का वातावरण निलम्बित मृत्युदण्ड के समान तनावपूर्ण था। वास्तविक युद्ध नहीं, युद्ध का वातावरण। न युद्ध- न शांति।”
के.पी.एस मेनन के अनुसार, “शीत-युद्ध दो विचारधाराओं-पूँजीवाद बनाम साम्यवाद; दो शासन पद्धतियों-संसदीय लोकतंत्र बनाम जनवादी लोकतंत्र; दो सैन्य गुटों-नाटो बनाम वारसा; दो राष्ट्रों-संयुक्त राज्य अमेरिका बनाम सोवियत संघ तथा दो व्यक्तियों- स्टालिन बनाम जॉन फॉस्टर डलेस के मध्य उग्र संघर्ष था।
जॉन फॉस्टर डलेस के अनुसार, “शीत-युद्ध नैतिक दृष्टि से धर्म युद्ध था, अच्छाई का बुराई के विरुद्ध, सत्य का असत्य के विरुद्ध, धर्म परायण लोगों का नास्तिकों के विरुद्ध।”
शीत-युद्ध परमाणु युग की ऐसी तनावपूर्ण स्थिति है, जो शस्त्र युद्ध से ज्यादा भयानक है। जिसने अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान की बजाय उन्हें उलझा दिया। उसने वियतनाम, कश्मीर, कोरिया, अरब-इजराइल सभी का मोहरों की तरह प्रयोग किया।
नोट:- लुई हार्ले– ‘The cold war as History’ 1967 (Book)
शीत-युद्ध द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दो महाशक्तियों (संयुक्त राज्य अमेरिका/सोवियत संघ) दो विचारधाराओं (पूँजीवाद व साम्यवाद) दो सैनिक संगठनों (वारसा व नाटो) में वैचारिक युद्ध था, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में तनाव की स्थिति पैदा हुई थी।
शीत-युद्ध एक मानसिक युद्ध था; यह एक वाक् युद्ध था, जिसे कागज के अंगारों, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो आदि के प्रचार द्वारा वैचारिक नफरत, राजनीतिक अविश्वास, कूटनीतिक जोड़-तोड़, सैन्य प्रतिस्पर्द्धा, जासूसी इत्यादि के माध्यम से लड़ा गया।
पश्चिमी गठबंधन की अगुवाई अमेरिका कर रहा था और यह गुट उदारवादी लोकतंत्र तथा पूँजीवाद का समर्थक था। पूर्वी गठबंधन की अगुवाई सोवियत संघ कर रहा था और इस गुट की प्रतिबद्धता समाजवाद तथा साम्यवाद के लिए थी।
शीत-युद्ध को लेकर मत
प्रथम मत, लुई हार्ले (द कोल्ड वॉर एज हिस्ट्री, 1967) व आंद्रे फोन्टने ने व्यक्त किया। इनके अनुसार शीत-युद्ध की उत्पत्ति 1917 की बॉल्शेविक क्रांति के साथ हो गई थी, द्वितीय विश्वयुद्ध में दोनों महाशक्तियों का एक गुट में शामिल होना मजबूरी थी।
द्वितीय विश्व युद्ध के समय द्वितीय मोर्चे को लेकर यूनान, रूमानिया, बुल्गारिया तथा परमाणु बम की जानकारी को लेकर दोनों महाशक्तियों में मतभेद थे।
द्वितीय मत के अनुसार, चर्चिल का फुल्टन भाषण (5 मार्च, 1946) (फुल्टन स्थान पर वेस्टमिन्स्टर कॉलेज, यू.एस.ए. में) शीत-युद्ध की शुरुआत थी, जिसमें चर्चिल ने साम्यवाद के खतरे से लड़ने हेतु आंग्ल-अमेरिकी गठबंधन का एक प्रस्ताव रखा और कहा कि हमें ‘लोहे के पर्दे’ (सोवियत संघ) के विरुद्ध एक होना चाहिए।
शीत–युद्ध के कारण
1. ऐतिहासिक कारण
2. द्वितीय मोर्चे का प्रश्न
3. युद्धोत्तर उद्देश्यों में अंतर
4. सोवियत संघ द्वारा याल्टा समझौते की अवहेलना
5. सोवियत संघ द्वारा बाल्कन समझौते का अतिक्रमण
6. ईरान से सोवियत सेना का न हटाया जाना
7. यूनान में सोवियत संघ का हस्तक्षेप
8. टर्की पर सोवियत संघ का दबाव
9. अणु बम का आविष्कार
10. सोवियत संघ द्वारा अमेरिका विरोधी प्रचार अभियान
11. पश्चिम की सोवियत विरोधी नीति और प्रचार अभियान
12. बर्लिन की नाकेबंदी
13. सोवियत संघ द्वारा वीटो का बार-बार प्रयोग
14. सोवियत संघ की लैण्ड-लीज सहायता बंद किया जाना
15. शक्ति-संघर्ष (मॉर्गेंथाऊ के अनुसार, “अंतर्राष्ट्रीय राजनीति शक्ति-संघर्ष की राजनीति है।”)
16. हित-संघर्ष
शीत–युद्ध के विशिष्ट साधन
1. प्रचार
2. शक्ति प्रदर्शन (सैनिक व तकनीकी)
3. जासूसी
4. कूटनीति
5. कमजोर तथा अविकसित राष्ट्रों को आर्थिक व सैन्य सहायता प्रदान करना।
आयरन कर्टेन- द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् सोवियत संघ द्वारा स्वयं को और उसके आश्रित पूर्वी एवं मध्य यूरोपीय देशों को पश्चिम एवं अन्य गैर-साम्यवादी देशों के साथ खुले सम्पर्क से अलग रखने के लिए राजनीतिक, सैन्य और वैचारिक अवरोध खड़ा किया गया जिसे ‘आयरन कर्टेन’ कहा गया।
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